सोमवार, 20 सितंबर 2010

अयोध्या फैसले के निहितार्थ

बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का,

जो चीरा तो कतरा ए खून न निकला।

ठीक इसी प्रकार 24 सितम्बर को श्रीराम जन्मभूमि के स्वामित्व विवाद मामले में अदालती फैसले के मद्देनजर कई प्रकार की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। इन आशंकाओं में देश भर में हिंसा भड़कना भी शामिल है।

कहा जा रहा है कि देश भर में काफी बावेला मच सकता है। फैसला जिसके पक्ष में नहीं आएगा, वह पक्ष खूनी खेल खेल सकता है। लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं होगा। यदि सामान्य तौर पर सोचा जाए तो हिंसा भड़कने का कहीं कोई आधार नहीं दिखता है, क्योंकि यह अदालत का आखिरी फैसला नहीं है। इसके बाद भी कई प्रकार के न्यायिक और लोकतांत्रिक विकल्प शेष हैं।

इस मामले में फैसला जिसके पक्ष में नहीं आएगा वह पक्ष उच्चतम न्यायालय में निश्चित रूप से अपील करेगा, इसमें कहीं कोई शंका नहीं है। इस संदर्भ में पूरे देश भर में झूठ में चिल्ल-पों मची हुई है। वास्तविकता यह है कि होगा कुछ नहीं।

क्योंकि 1992 के बाद से गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती में काफी पानी बह चुका है। एक 1992 का दौर था और एक आज का दौर है। इतने वर्षों में एक पीढ़ी बदल चुकी है और यदि नहीं बदली तो बूढ़ी जरूर हो चुकी है। इसके साथ ही दोनों पीढ़ियों के लोगों की सोच में जमीन-आसमान का अंतर है।

एक यह बात भी पते की है कि आज का युवा सामाजिक कम और प्रोफेशनल ज्यादा हो गया है। हर क्षण उसको अपने करियर की ही चिंता लगी रहती है। इस कारण भी उसका इस प्रकार के संघर्षों में ऱूचि नहीं के बराबर है। दुनिया का कोई राजनीतिक व सामाजिक आंदोलन हो या संघर्ष हो, उसमें युवाओं की ही प्रमुख भूमिका देखी गई है। बिना युवाओं की भागीदारी के इस प्रकार के कार्यक्रम या अभियान सफल नहीं हो सकते।

युवाओं का यदि ऐसा रुख है तो उसका भी एक कारण है। आज का युवा शांति का पक्षधर ज्यादा है। इसके अलावा भी सभी शांति चाहते हैं। सुख-चैन की जिंदगी सबको प्रिय है। हालांकि, सुख व चैन की जिंदगी जीने की मनुष्य की इच्छा कोई नई बात नहीं है, यह उसकी सदा-सर्वदा से इच्छा रही है। तो आखिर ये बावेला कौन मचाएगा ?

लेकिन इतना सब कुछ होते हुए भी जब सत्य और असत्य का प्रश्न आएगा तो पूरा देश उठ खड़ा होगा। इस बात को किसी भी तर्क से काटा नहीं जा सकता। क्योंकि सत्य और असत्य क्या है, सब जानते हैं। सबको भलीभांति मालूम है।

इस सृष्टि में जो कुछ भी है उसका होना सत्य है और जो कुछ भी नहीं है उसका न होना सत्य है। यह होने और न होने का क्रम समय के साथ-साथ चलता ही रहता है। मनुष्य के जीवन में कभी-कभी ऐसी भी परिस्थितियां आती हैं कि जो दिखता है वह सत्य नहीं होता। हर पीली दिखने वाली वस्तु सोना नहीं हुआ करती।

सत्य यही है कि दशरथ नन्दन श्रीराम सूर्यवंश के 65वें प्रतापी राजा थे। वह इस सृष्टि के आदर्श महापुरुष योद्धा थे। उनका जन्म अयोध्या में अपने पिता महाराजा दशरथ के राजमहल में हुआ था। फिरभी उनके जन्मस्थान के स्वामित्व का मामला वर्षों से अदालत में लंबित है। सभी जानते हैं कि सत्य क्या है। फिरभी मामला लंबित है। लेकिन न्यायालय को इस सत्यता से क्या लेना देना। न्यायालयीन प्रक्रिया के लिए केवल सबूत की आवश्यकता होती है। विश्वास, आस्था और श्रद्धा न्यायालय के विषय नहीं हैं।

हालांकि, मुकदमेबाजी की पूरी प्रक्रिया को सत्य के अपमानित होने का कालखंड कह सकते हैं। लेकिन सत्य केवल अपमानित ही हो सकता है, पराजित नहीं। यह सृष्टि का नियम है। न्यायालय के हर फैसले में देशवासियों की पूर्ण श्रद्धा है। न्यायालय ईश्वर का दूसरा रूप है। इसलिए फैसला किसी के भी पक्ष में आए, वह ईश्वरीय माना जाएगा। और इस कारण अन्ततः भगवान श्रीराम की ही विजय होगी।

सृष्टि का एक यह भी सत्य है कि सत्य की लड़ाई अंत तक और सत्य को पा लेने तक लड़ी जाती है। धैर्य, उत्साह व स्वाभिमानपूर्वक लड़ी गई लड़ाई ही तपस्या है और सफलता के लिए तपस्या आवश्यक है। इसलिए शांति बनी रहेगी।

कोई टिप्पणी नहीं: