मंगलवार, 7 जनवरी 2014


Smritee Mandir of RSS founder Dr KB Hedgewar at Nagpur, Maharashtra. 

सोमवार, 4 नवंबर 2013

Pawan Kumar Arvind

Pawan Kumar Arvind with daughter Poorvashri

















Pawan Kumar Arvind

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

समस्या के समाधान तक उठाते रहेंगे कश्मीर मुद्दा

सुरेश जोशी उपाख्य भैयाजी

वर्ष 1947 के पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाओं में एक खेल मैदान पर खेलते थे, वह खेल था दिल्ली किसकी है। 1947 के बाद खेल बदला और प्रश्न आया कि कश्मीर किसका है? कश्मीर हमारा है। संघ की शाखा में स्वयंसेवकों के मन में इस भाव का जागरण बहुत पहले से ही होता आया है। समस्या है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, इसके बारे में संघ के स्वयंसेवकों के मन में अलग कोई भावना या विचार नहीं है, पहले से ही इस प्रकार की धारणा है।

कश्मीर के संदर्भ में भावी परिदृश्य क्या होता है? जो भूत में था वही परिदृश्य है, वर्तमान में वही रहेगा, कोई अलग नहीं है। वर्तमान में जो है उसके कारण कुछ प्रश्न है। कश्मीर के संदर्भ में वर्तमान परिदृश्य भूतकाल का परिदृश्य नहीं है और यह वर्तमान का भी परिदृश्य देने वाल नहीं है। कश्मीर के संदर्भ में भावी परिदृश्य यही है कि जो प्रारम्भ से चला आ रहा है उसी दृष्टिकोण को देश ही नहीं बल्कि दुनिया के समक्ष सिद्ध करना, हमारा यही कार्य है। परिदृश्य के बारे में कोई दोराय नहीं है।

इस देश पर समय-समय पर विभिन्न प्रकार के आक्रमण होते आये हैं। शस्त्र लेकर आये, सारा एकदम खुला स्वरूप था आक्रमण का, ध्यान में आता है, तो लोग तैयारी करते थे आक्रमण का। पुरुषार्थ के बल पर, शक्ति के बल पर विजय प्राप्त करते हैं। तो एक बहुत लम्बी परम्परा इस देश की शक्ति ने, पुरुषार्थ ने देखी है कि किस प्रकार से शत्रुओं का सामना करना पड़ता है। शस्त्र के सामने न झुकते हुए चलते थे उसी कारण भारत का अस्तित्व विश्वमंच पर बना रहा है नहीं तो भारत समाप्त हो जाता।

एक दूसरा विभिन्न प्रकार का आक्रमण जो चला, योजना पूर्वक एक षड्यंत्र के रूप में रहा, अंग्रेजों का जो आक्रमण था वह बहुत ही सहज, हमें लगा भी नहीं कि कोई शत्रु आ रहा है, अंग्रेज हमें मित्र ही लगे। लोगों को कितनी प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करायी। अगर अंग्रेज नहीं होते तो यह देश कैसे बनता, अंग्रेजों ने एक देश को देश दिया है। ऐसी भावना अच्छे-अच्छे और बुद्धिमान लोगों के मन में है। कभी-कभी लोग कहते थे कि अंग्रेजों का राज्य बहुत अच्छा था, क्या अच्छा था- तो कोई कष्ट नहीं, सुविधाएं सब प्रकार की थी, सब सम्मान मिलता था। रायबहादुर वगैरह इस प्रकार की पदवियां दी जाती थीं। समाज के संभ्रांत लोग अपने आपको धन्य मानते थे। उस समय के अंग्रेज अधिकारियों के साथ उठना-बैठना तथा चाय-पान करने को एक बड़ा गौरव मानते थे। तो शत्रु को शत्रु न समझना, यह बहुत ही कठिन स्थिति है किसी देश के लिए। अंग्रेज इस देश में कई प्रकार के बीज रोपण करके गये कि यहां का एक समान्य व्यक्ति भी भारत का दिखेगा लेकिन भारत का रहेगा कि नहीं, यह प्रश्न है। यह सामान्य अनुभव हम लोग देखते आये हैं।

अब वर्तमान का दृश्य जब हम देखते हैं तो दोनों प्रकार के आक्रमण हमारे देश पर चल रहे हैं। शस्त्र का सहारा लेकर आतंकवाद यहां प्रवेश कर चुका। और भी भिन्न-भिन्न प्रकार की आर्थिक शक्तियों का इस देश के जीवन में हस्तक्षेप भारत को फिर से अर्थ की दृष्टि से गुलाम बनाने में लगा हुआ है। शस्त्र का सहारा लेकर आतंकवाद के रूप में खुला आक्रमण भी चल रहा है; परन्तु दुर्भाग्य की स्थिति इस समय यह हो रही है कि इस देश में रहने वाले लोगों को ही अपने मित्र बनाकर अपने देश के साथ गद्दारी करने वाले खड़े करते गये। आतंकी घटनाएं होती हैं, मुम्बई, दिल्ली, जम्मू में होती है, या देश में कहीं और होती है, यह इसीलिए होती है क्योंकि उनको सहयोग करने वाले तत्व यहां विद्यमान हैं। यह पिछले आक्रमणों की तुलना में आया हुआ एक नया रूप है। इस देश के अंदर ही उनको सब प्रकार से सहयोग करने वाले लोग हैं। क्या अजमल कसाब बिना किसी सहयोग के ही यहां आया? केवल कसाब की ही बात नहीं है, बल्कि 26/11 में तो 10 पाकिस्तानी आतंकी समुद्री सीमा से देश में घुस आये और मुम्बई में तीन दिन तक रहकर 26/11 को अंजाम दे दिया। यह बिना किसी सहयोग के संभव ही नहीं है। यह सारा कुछ इसलिए हो रहा है कि देश के साथ गद्दारी करने वाली शक्तियां सक्रिय हैं। यह एक बड़ी समस्या है। इसके साथ हम जूझ रहे हैं।

सीमावर्ती देश पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश अपने देश में घुसपैठ कारने की कोशिश करते रहते हैं। एसे सीमावर्ती क्षेत्र पीड़ित हैं। तो ऐसी परिस्थितियां देश के अंदर हैं। देश के जो रणनीतिकार हैं उनका दायित्व बनता है कि अपने देश के लिए रणनीति बनाकर चलें। कोई नीति है क्या, इस प्रकार की नीति बनाने वाले जो लोग हैं उनकी प्रामाणिकता पर, देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह कभी-कभी लगाये जाते हैं। क्या वे प्रामाणिकता से देशहित को सामने रखकर रणनीति बनाने में लगे हुए हैं, यह सोचना आवश्यक है।

यह बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण है कि राजनैतिक-तात्कालिक स्वार्थ को सामने रखकर, उसको हिंदू मुस्लिम का संघर्ष बताकार उसको राजनीतिक पाले में डाल दो, यह एक बड़ी आदत है। अब कश्मीर के बारे में कोई बोलेगा, घुसपैठ और आतंकवाद के बारे में कोई बोलेगा तो वह साम्प्रदायिक है। वह इस्लाम का विरोधी है। ऐसी छवि निर्माण करने का प्रयास हो रहा है।

प्रश्न के मूल में जाकर, उसको समझकर, समस्या निवारण के प्रति योजना या रणनीति बनाने की बजाय अपने राजनीतिक स्वार्थ को सामने रखकर क्षणिक लाभ देनेवाली बातें करते रहना, दुर्भाग्य से कुछ राजनीतिक दलों ने अपनी भूमिका इस प्रकार की बनायी है।

अब इस राष्ट्र के बारे में, देश की समस्याओं के बारे में बोलना भी राजनीतिक हो गया है, वह राष्ट्रीय नहीं रहा। यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राष्ट्रीय मुद्दों को उठा रहा है तो वह राजनीतिक हो गया। क्या राष्ट्रहित से जुड़े हुए मुद्दों को जनजागरण की दृष्टि से उठाने में कोई चुनावी लाभ निहित है? किसी राजनैतिक क्षेत्र को प्रभावित करने के लिए है? ऐसे कुछ संकुचित स्वार्थ को लेकर क्या प्रश्न उठाये जाते हैं? जनसामान्य की देशभक्ति पर इस प्रकार की आशंकाएं प्रकट करना क्या देश की मानसिकता को दुर्बल करने वाला सिद्ध नहीं होगा? परन्तु इतना प्रामाणिकता से विचार करने के लिए किसके पास समय है, यह सोचने की आवश्यकता रहेगी।

भारत की शैली रही है बाचतीत करो, वार्तालाप करो, समझौता करो। यह पद्धति तो श्रेष्ठ है। इस इक्कीसवीं सदी में, आज के इस वैज्ञानिक युग में, एक विकसित मानव-जीवन के कालखंड में वार्तालाप करते हुए, गलतफहमियां दूर करते हुए, मनुष्य का जीवन सुख-शांति से चले, यह समय की मांग है। परन्तु बातचीत करने वाले को दुर्बल माना जाता है, शक्ति नहीं है तो बात करने आये हैं। जो शांति का मार्ग लेकर चले हैं और सबको मिलकर चलने की बात करते हैं, सबकी अस्मिताओं का संरक्षण करते हुए अपना-अपना देश अपने-अपने ढंग से चलता रहे, ऐसी बात करना दुर्बलता का प्रतीक माना गया है! इस प्रकार की एक गलत सोच विकसित हुई है।

भारत मित्रता चाहता है, सबसे मित्रता का इच्छुक है। समानता के आधार पर, हम अपनी छोटी भूमिका लेकर नहीं, और कुछ बातों में हम श्रेष्ठ भी हैं, इस भाव को लेकर भारत को खड़ा होना पड़ेगा। ऐसे रणनीतिकार भारत के चाहिए। इस भाव को प्रबल करने वाले लोग सत्ता में बैठने चाहिए। किसी भी प्रकार की देशहित के साथ समझौता करने वाली राजनीतिक शक्तियों को समाज में जागृत होकर पराभूत करने की आवश्यकता है। उनके सारे षड्यंत्रों का पर्दाफाश करने की आवश्यकता है।

वर्तमान में कई प्रश्नों के बारे में उदासीनता का वातावरण है। ऐसे प्रश्नों के निवारण के लिए समाज को कुछ करना चाहिए, इसके प्रति उदासीनता है। उदासीनता तो है ही, अज्ञानता भी है, हम कई बातों को जानते ही नहीं। इसके बारे में समाज को जागृत करना चाहिए, इसकी आवश्यकता है। यह जो कश्मीर का प्रश्न है, हिंदुस्तान, पाकिस्तान का प्रश्न है, ऐसा जो माना जाता है। ठीक है पाकिस्तान सारी समस्याओं की जड़ में है, लेकिन क्या यह प्रश्न हमारा नहीं है, देश का नहीं है, देश के रणनीतिकारों का नहीं है। देश के अंदर राष्ट्रभाव को जागृत करते हुए, उदासीनता को दूर करते हुए प्रश्नों को दूर करने के लिए, प्रश्नों का हल ढंढने के लिए समाज के अंदर शक्ति का जागरण करना पड़ेगा। यह काम एक चुनौती है, एक आह्वान है। इसको लेकर हम जायेंगे, हम खड़े हैं। कभी-कभी लोग कहते हैं कि हो गया, अब बहुत हो गया, कितने बार कश्मीर को लेकर आंदोलन करेंगे। इस प्रश्न का भी सरल शब्दों में यही उत्तर है कि जब तक कश्मीर समस्या हल नहीं होगी, यह प्रश्न बार-बार उठता रहेगा। इसके लिए हम निरंतर प्रयास करेंगे।

लोग बड़ी सहजता से कह देते हैं कि जो नियंत्रण रेखा है, एलओसी है, उसको अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लो। क्यों झगड़ा करना। पड़ोसी देश है। बड़ा गरीब है। बड़े पिछड़ा हुआ है। भारत से ज्यादा पाकिस्तान में दर्दनाक घटनाएं होती हैं। क्या ऐसी सामान्य बुद्धि को लेकर विदेशी शक्ति की उदण्डता को देखते रहेंगे? देश के प्रश्नों के बारे में कठोरता से कहना पड़ता है, कदम उठाने पड़ते हैं। ऐसी सरकार चाहिए। अपने अस्मिता और सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं। इस प्रकार की शक्ति का भाव का जागरण निरंतर करेंगे। प्रश्नों को लंबित करते जाओ, प्रश्नों की उपेक्षा करते रहो, ऐसे आत्मविश्वास से शून्य, इस प्रकार का परिचायक जो व्यवहार होता है, इससे सब लोगों को मुक्त करना, यह संकल्प हम लोगों ने लिया है।

हम कश्मीर के प्रश्न को लेकर जाएंगे। लोकतंत्र में शासन जनशक्ति को ही समझता है। ऐसे प्रश्नों पर शासन जनशक्ति को ही समझता है। हमारा भी दायित्व बनता है कि हम जनशक्ति का प्रकटीकरण करें, जनशक्ति को खड़ा करें। और आवश्यकता पड़ती है तो शक्ति का लोकतांत्रिक प्रदर्शन करने की भी तैयारी करें।

(उपरोक्त आलेख राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह सुरेश जोशी उपाख्य भैयाजी द्वारा ‘जम्मू-कश्मीर : तथ्य समस्याएं एवं समाधान’ नामक कार्यशाला में व्यक्त विचारों का मूलरूप है। इसका आयोजन 19 व 20 नवम्बर 2011 को ‘जम्मू-कश्मीर अध्ययन केंद्र’ के तत्वावधान में नागपुर स्थित रेशिमबाग में किया गया था।)

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

'ज्यादा स्वायत्तता' का अर्थ है, कल की स्वतंत्रता

पवन कुमार अरविंद

कश्मीर मसले पर वार्ताकार पैनल ने अपनी रिपोर्ट भले ही केंद्रीय गृह मंत्रालय को सौंप दी है, लेकिन इसकी सिफारिशों पर अमल सर्वदलीय बैठक के बाद ही होगा। क्योंकि सरकार किसी भी विवाद का जिम्मा अकेले अपने ऊपर क्यों लेना चाहेगी? हालांकि, पिछले वर्ष 20 सितम्बर को हालात का जायजा लेने दो दिवसीय दौरे पर जम्मू-कश्मीर गये 39 सदस्यीय सर्वदलीय संसदीय प्रतिनिधिमंडल की सिफारिश पर ही वार्ताकार पैनल के गठन का फैसला किया गया था। इस कारण भी इसकी संभावना बनती है कि केंद्र सरकार इसके लिए सर्वदलीय बैठक बुलाएगी। इस प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व गृह मंत्री पी. चिदंबरम कर रहे थे, जिसमें संसद के दोनों सदनों- लोकसभा व राज्यसभा के नेता प्रतिपक्ष क्रमश: सुषमा स्वराज व अरुण जेटली, लोजपा प्रमुख रामबिलास पासवान सहित अन्य पार्टियों के नेता शामिल थे।

केंद्र ने 12 अक्टूबर 2010 को वरिष्ठ पत्रकार दिलीप पडगांवकर के नेतृत्व में तीन सदस्यीय वार्ताकार पैनल का गठन किया था। इसके दो अन्य सदस्य शिक्षाविद् प्रो. राधा कुमार और पूर्व सूचना आयुक्त एम.एम. अंसारी थे। गृह मंत्रालय ने वार्ताकारों को कश्मीर समस्या का विस्तृत अध्ययन कर इसके समाधान का रास्ता सुझाने के लिए कहा था। पैनल ने अपने एक वर्षीय कार्यकाल के अंतिम दिन यानी 12 अक्टूबर 2011 को अपनी रिपोर्ट गृह मंत्रालय को सौंप दी।

रिपोर्ट सौंपने के बाद वार्ताकारों में से एक सदस्य ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि राज्य को और अधिक स्वायत्तता देने की सिफारिश की गयी है, पर यह 1953 के पहले जैसी नहीं होगी। हालांकि, तीनों वार्ताकारों- पडगांवकर, अंसारी और राधा कुमार ने रिपोर्ट के तथ्यों के बारे में अधिकृत रूप से कुछ भी बताने से इन्कार किया।

इस संदर्भ में जम्मू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रो. हरिओम का कहना है कि अगर रिपोर्ट स्वायत्तता की पैरवी करती है तो इसके नतीजे भयानक होंगे। जम्मू, लद्दाख के लिए अलग रीजनल काउंसिल बने तो यह ठीक रहेगा, लेकिन इसका स्वरूप क्या होगा, कहा नहीं जा सकता है।

हालांकि, कश्मीर समस्या के समाधान के निमित्त विगत दस वर्षों में केंद्र का यह कोई प्रथम प्रयास नहीं है। इसके पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने श्रीनगर में 24 व 25 मई 2006 को आयोजित राउंड टेबिल कान्फ्रेंस में कश्मीर समस्या पर गहन विचार विमर्श के लिए पांच कार्यदल गठित किये थे। ‘बेहतर प्रशासन’ पर गठित कार्यदल के प्रमुख एन.सी. सक्सेना, ‘आर्थिक विकास’ पर सी. रंगाराजन, ‘नियंत्रण रेखा के आर-पार सम्बंध विकसित करने’ एम.के. रसगोत्रा तथा ‘विश्वसनीयता बढ़ाने के प्रश्न’ पर मोहम्मद हामिद अंसारी (अब उप-राष्ट्रपति) के नेतृत्व वाले कार्यदलों ने अपनी-अपनी रिपोर्ट 24 अप्रैल 2007 को केंद्र को सौंपी थी।

पांचवे कार्यदल के प्रमुख थे- जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सगीर अहमद। न्यायमूर्ति अहमद ने अपनी रिपोर्ट में स्वायत्तता को अलगाववादी मांग नहीं माना और लिखा कि स्वायत्तता को बहाल करने के सम्बंध में प्रधानमंत्री स्वयं अपना तरीका व उपाय तय करें। उन्होंने अनुच्छेद 370 के अस्थाई दर्जे पर अंतिम फैसले की भी पैरवी की थी और कहा कि केन्द्र राज्य के बेहतर सम्बन्धों के लिये अनुच्छेद 370 पर अंतिम फैसला जरूरी है।

10 जनवरी 2010 को जम्मू में हुई बैठक में राज्य विधानसभा के सदस्यों- हर्षदेव, डॉ. अजय, अश्विनी कुमार, शेख अब्दुल रहमान और राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष अरुण जेटली ने रिपोर्ट को फर्जी और नेशनल कांफ्रेंस का एजेण्डा करार दिया था। इस पर जेटली ने सवाल उठाते हुए कहा था कि सितम्बर 2006 के बाद कार्यदल की कोई बैठक नहीं हुई तो यह रिपोर्ट कहां से आ गयी?

दरअसल, जेटली का तर्क उचित ही था क्योंकि न्यायमूर्ति सगीर लम्बे समय से बीमार थे और कार्यदल की बैठकों में शामिल नहीं हो पाये थे। इस रिपोर्ट में नेशनल कांफ्रेंस की मांगों की शब्दावली है। उस समय यह चर्चा जोरों पर थी कि क्या इस रिपोर्ट को नेशनल कान्फ्रेंस के राजनैतिक इस्तेमाल के लिए ही कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार ने तैयार करवाया है?

जम्मू-कश्मीर मामले के अध्ययन के लिए पूर्व केंद्रीय विधि मंत्री राम जेठमालानी की समिति भी कार्य कर चुकी है। राज्य के वर्तमान राज्यपाल एन.एन. वोहरा भी कश्मीर पर केंद्र के वार्ताकार रह चुके हैं। सभी रिपोर्टों में कश्मीर समस्या की जटिलता की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वैसे मौजूदा वार्ताकारों की रिपोर्ट में क्या है, इसकी जानकारी इसके सार्वजनिक होने के बाद ही पता चलेगी, लेकिन चर्चा इस बात की भी है कि वार्ताकारों की रिपोर्ट विगत वर्षों में आयी न्यायमूर्ति सगीर सहित विभिन्न समितियों की रिपोर्टों से भिन्न नहीं होगी। यानी आज की ‘ज्यादा स्वायत्तता’ का मतलब है, कल की स्वतंत्रता।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

कुरसी तू बड़भागिनी

पुस्तक समीक्षा

पवन कुमार अरविंद

व्यंग्य की विधा साहित्य में कुछ विशेष प्रकार की है। जैसे क्रिकेट में सफल गेंदबाज वही है, जिसकी गेंद की गति, दिशा और उछाल का बल्लेबाज को अंतिम समय तक अनुमान न हो पाये। सफल फिल्म और उपन्यास भी वही होता है, जिसका रहस्य और निष्कर्ष, अंत में जाकर ही पता लगता है। इसी प्रकार व्यंग्यकार जो संदेश देना चाहता है, वह प्राय: अंतिम दो तीन वाक्यों में ही स्पष्ट हो पाता है और पाठक को यात्रा करते-करते अचानक अपने लक्ष्य पर पहुंचने जैसी संतुष्टि प्राप्त होती है।

हँसने-हँसाने का रुझान भी अपने में अनूठा होता है। कुछ लोग चुटकुले पढ़ना और उन्हें याद कर ठीक समय पर सुनाने के शौकीन होते हैं। इससे सभा या बैठक का माहौल खुशनुमा होता ही है साथ ही उपस्थित लोगों की थकान भी क्षण भर के लिए छू-मंतर हो जाती है। समाज में कुछ ऐसे भी लोग होते हैं जो बातचीत में कुछ व्यंग्यात्मक बातें प्राय: बोल देते हैं। भले ही वे साफ मन से बोली जायें; पर सुनने वाले बुरा मान जाते हैं। इससे लोगों को कभी-कभार हानि भी उठानी पड़ जाती है। हालांकि, व्यंग्य में थोड़ा सा हास्य भोजन की थाली में, चटनी और अचार जैसा मजा देता है। मारो कहीं, लगे कहींऔर कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशानाकी तरह इन विशेषताओं को कुरसी तू बड़भागिनीनामक हास्य-व्यंग्य पुस्तक में बखूबी शामिल किया गया है। इसके लेखक हैं वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार विजय कुमार।

इस पुस्तक की एक दूसरी विशेषता यह है कि इसमें विदेशी भाषाओं का घालमेल नहीं है। हालांकि आजकल हिंदी में विदेशी भाषाओं के घालमेल की एक भेड़चाल सी चल पड़ी है। फिलहाल, लेखक ने इससे यथा संभव बचने का प्रयास किया है। पुस्तक में शामिल लेखों के सामयिक होने के कारण इनकी मार के दायरे में; पुलिस, प्रशासन, पत्रकार, लेखक और व्यापारी, कर्मचारी, चिकित्सक, वकील सब आये हैं।

पुस्तक में छोटे-छोट कुल 48 अध्याय हैं। ये सभी; मोबाइल मीटिंग, कूड़ा जनता के सौजन्य से, राजू उठ, बैट पकड़, मेरे घर के सामने, हम भी मोबाइल हुए, कविता वायरस, डार्विन का विकासवाद, सेक्यूलर चश्मा, राहुल बाथ सोप, विकास का मूल्य, कोड नंबर का जंजाल, डॉक्टर का सेक्यूलर एजेंडा, करोड़ रुपये का इतना अपमान, कहानी नई पुरानी, हनुमान जी के आँसू, बड़े भाइयो सावधान, मैं और मोबाइल चोर, नाई से न नाई लेत..., यह भी कोई चोरी है? और हे भगवान, मैं बच गया; आदि शीर्षकों के अंतर्गत लिखे गये हैं। यह बहुत ही रोचक और हास्य-व्यंग्य की उच्च स्तरीय पुस्तक है। हालांकि पुस्तक में शामिल इन व्यंग्य लेखों की मार और धार कैसी है, इसका वास्तविक निर्णय तो पाठकों को ही करना है।

पुस्तक : कुरसी तू बड़भागिनी

लेखक : विजय कुमार

पृष्ठ 136, मूल्य रु. 175/-

प्रकाशक : सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

अकेला अन्ना बेचारा क्या कर सकेगा?

पवन कुमार अरविंद

भ्रष्टाचार के उन्मूलन के लिए अकेला बेचारा बूढ़ा अन्ना क्या कर सकेगा। क्योंकि यह भ्रष्टाचार अत्र, तत्र, अन्यत्र और सर्वत्र विराजमान है, यानी दसों दिशाओं में व्याप्त है। इसका दायरा बहुत व्यापक है। यह केवल नेताओं तक ही सीमित नहीं है। जहां देखो वहीं भ्रष्ट लोग और भ्रष्टाचार दिखायी व सुनाई देता है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल भी क्या कर सकेगा। किसी व्यक्ति के भ्रष्ट आचरण को आप केवल कानून बनाकर कैसे बदल देंगे। क्या यह संभंव है? कदापि नहीं। भ्रष्टाचार मन का विषय है और कहते हैं कि मन बड़ा चंचल होता है। इसके प्रादुर्भाव का कारण मनोमालिन्यता, मनोवाद, मनोविकार, मनोव्याधि, मनोभ्रंश, मनोदशा और मनोग्रंथि है। आप कानून बनायेंगे तो यह मानव मन उसकी भी काट ढूंढ लेगा। तब आप क्या कर सकेंगे?

अन्ना ने जब अनशन किया तो हजारों लोग दिल्ली के जंतर मंतर पर उनके समर्थन में पहुंच गये। देशभर में उनके समर्थन में लोग अनशन करने लगे। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि ये सभी महानुभाव लोग दूध के धुले हैं और इन सभी ने अपने जीवन में कभी भी भ्रष्टाचार नहीं किया है, या अब से नहीं करने की ठान ली है। इस भीड़ में कई ऐसे लोग भी शामिल थे जिनको बिजली के मीटर को सुस्त करने में महारत हासिल है, ताकि बिजली बिल कम देना पड़े।

भ्रष्टाचार के कितने प्रकार हैं, आप इसका अंदाजा नहीं लगा सकते हैं। हर घंटे एक भिन्न प्रकार का भ्रष्टाचार और उसको अंजाम तक पहुंचाने का तरीका पनप रहा है। यात्रा के दौरान ट्रेन की सीट कन्फर्म न होने या टिकट वेटिंग में होने पर हम प्रयास करने लगते हैं कि टिकट परीक्षक किसी भी प्रकार से ले-देकर एक सीट का जुगाड़ कर दे, ताकि रात को हम चैन की नींद ले सकें। इसके लिए हम दूसरे का हक भी मारने को तैयार हो जाते हैं। यह भी तो एक प्रकार का भ्रष्टाचार ही है। यात्रा के दौरान ट्रेन में यह हर रोज और हर क्षण होता है।

गेहूँ की कम्बाईन से कटाई के कारण मवेशियों के लिये भूसे की पर्याप्त कमी हो जा रही है। इसके कारण भूसा गेहूँ से भी महंगे दामों पर बिक रहा है। भूसे की उपलब्धता बाजार में भी नहीं है। उत्तर प्रदेश के कई जिलों में यह बात चायखाने की चर्चा का विषय है कि गेंहूँ की कम्बाइन से कटाई पर जिलाधिकारी (डीएम) ने रोक लगा दी है, ताकि भूसे की उपलब्धता बढ़ाई जा सके। जिलाधिकारी के इस आदेश के पालन के लिए उप-जिलाधिकारी (एसडीएम) और तहसीलदार साहब गांव-गांव का दौरा कर रहे हैं। इस नये आदेश के बाद एक और भ्रष्टाचार उत्पन्न हो गया है। सरकारी साहब लोग गेहूँ की कटाई कम्बाइन से होने देने के लिए कम्बाइन मालिकों से मोटी रकम वसूल रहे हैं और जो कम्बाइन मालिक रकम देने से इन्कार कर रहे हैं उनको डीएम का फरमान सुना दे रहे हैं। हालांकि, इन सब बातों में कितनी सत्यता है, यह जांच का विषय है। लेकिन यह भी एक भ्रष्टाचार ही है।


इस भ्रष्टाचार के कारण ही शुद्ध शब्द ज्यादा प्रचलित हुआ है। आप जहां कहीं भी जायें; लिखा रहता है- यहां हर सामान शुद्ध मिलता है; यथा- शुद्ध दूध, शुद्ध घी, शुद्ध मिठाई इत्यादि। प्रश्न यह उठता है कि दूध, दही, घी, मिठाई और भी अन्य सामग्रियां क्या स्वयं में शुद्ध नहीं होतीं कि इसको प्रमाणित करने के लिए शुद्ध लिखना पड़ रहा है, या कुछ मिलावट के बाद ही ये सामग्रियां शुद्ध होती हैं। बात साफ है- मिलावट रूपी भ्रष्टाचार का प्रमाणन ही शुद्ध शब्द लिख कर किया जाने लगा है।

ग्वाला डंके की चोट पर एक ही दूध को कई दामों पर बेचता है। पूछने पर वह कहता है कि कम दाम वाले दूध में अधिक पानी और अधिक दाम वाले में कम पानी मिलाया गया है। यदि आप पूछेंगे कि बिना पानी वाला दूध कौन सा है, तो वह दूध का एक दूसरा डिब्बा आपको थमा देगा और कहेगा- बाबूजी, इसमें तनिक भी पानी नहीं मिलाया गया है, इसीलिये इसका दाम ऊंचा है। ये मिलावटी भ्रष्टाचार हम लोग रोज देखते व सुनते हैं और सहन भी करते हैं। कहने का तात्पर्य है कि भ्रष्टाचार का दीमक सर्वत्र विराजमान है।

इसके बावजूद भी इस सृष्टि में कभी भी असत् की सत्ता नहीं रही है और सत् का कभी अभाव नहीं रहा है। इसका प्रत्यक्ष अनुभव तत्वदर्शियों ने किया है। (श्रीमद्भगवद्गीता) फिलहाल, चाहे जो हो लेकिन हर युग में भ्रष्टाचार की व्याप्ति रही है। कभी कम तो कभी कुछ ज्यादा। लेकिन वर्तमान भारत में भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। इसलिए सत्पुरूष समाज घबराया हुआ है। हालांकि, इसका समूल उन्मूलन कभी भी नहीं किया जा सका है। फिर भी सत्पुरूष समाज सदैव इसके उन्मूलन के लिए कटिबद्ध रहा है। सवाल यह है कि यदि हम सदैव अच्छे की कामना करें तो इसमें बुरा क्या है? करना भी चाहिए। हालांकि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए वर्तमान का जो संघर्ष है उसका लक्ष्य कानून बनाकर भ्रष्टाचारियों में भय पैदा करने की है। यह भी एक अच्छी सोच है। भय बिनु होय प्रीति... यह भय तब और प्रभावी होगा जब इसके समर्थन में सहस्रों हाथ उठेंगे। अतः भ्रष्टाचार उन्मूलन के इस अभियान में हम सबको आत्मपरिष्कार के मार्ग का वरण करते हुए सक्रिय होकर प्राण-प्रण से लगना चाहिए, तभी भ्रष्टाचार का उन्मूलन संभव है।