मंगलवार, 9 दिसंबर 2008

राष्ट्रीय एकता में बाधक है धारा 370

लेखक- जगमोहन
जैसा कि मैंने अपनी पुस्तक ‘माई फ्रोजेन टरब्यूलेंस इन कश्मीर’ (अगस्त, 1986) में भारत की कश्मीर-नीति व प्रशासन में आमूल-चूल परिवर्तन के लिए यह संकेत दिया था कि ‘धारा 370 कुछ और नहीं, बल्कि जन्नत के हृदय में जोकों का चरागाह है। यह गरीबों की खाल खिंचती है, उन्हें मृगतृष्णा दिखाकर धोखे में रखती है तथा नए सुल्तानों के ‘अहं’ को हवा देती है।’ सारतत्तव यह है कि यह अन्याय की जमीन तैयार करती है, जो विरोधाभासों व कच्चेपन से भरी है। यह नाटकीय, दुरंगेपन व धोखे की राजनीति को पोषित करती है। यह विध्‍वंस के जीव पैदा करती है। यह द्वि-राष्ट्रवाद की अरुचिकर विरासत को जीवित रखती है। यह हिंदुस्तान के अस्तित्व को नकारती है और कश्मीर से कन्याकुमारी तक की महान सामाजिक व सांस्कृतिक धरती के हर विचार को धुंधला करती है। यह घाटी स्थित ऐसे हिंसात्मक भूकंप का केंद्र बिंदु है, जिसका कंपन अप्रत्याशित नतीजों के साथ देश के हर कोने में महसूस होगा।’
बाद की घटनाओं ने यह दर्शा दिया कि मेरी शंकाएं कितनी सही थी। पिछले 17 सालों से पूरा जम्मू-कश्मीर हिंसा की चपेट में है और इसके हिंसात्मक नतीजों से देश के अन्य भाग भी प्रभावित हैं।
सार-संक्षेपधारा 370 का सार यह है कि संघीय संसद रक्षा, विदेशी व संचार मामलों के अलावा संघ व समवर्ती सूची में शामिल विषयों पर कानून बना सकती है लेकिन वह भी राज्य सरकार की सहमति से। इस धारा के बारे में बहुत पहले 7 अगस्त, 1952 को डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ठीक ही कहा था, ‘आप जो करने जा रहे हैं, वह भारत को विखंडित (Balkanisation of India) कर देगा। यह उन लोगों को मजबूत कर सकता है, जो यह विश्वास रखते हैं कि भारत एक देश नहीं है, बल्कि कई भिन्न राष्ट्रों का समूह है।’
पृष्ठभूमि27 अक्टूबर, 1947 को ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन’ के कार्यान्वयन होने तथा 26 जनवरी, 1950 को संविधान लागू होने पर जम्मू और कश्मीर राज्य भारत के क्षेत्रीय और संवैधानिक क्षेत्राधिकार में आया। धारा प् ने इसे भारतीय संघ का स्थाई अंग बना दिया। धारा 370 एक विशेष संबंधा स्थापित करती है, जिसे स्वयं जवाहर लाल नेहरू ने ‘अस्थाई’ कहा था। 24 जुलाई 1952 को संसद में दिल्ली समझौते पर बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘धीरे-धीरे विधिक व संवैधानिक संबंधों के विकास के लिए हम सभी विभिन्न कारणों की वजह से इसे अस्थिर अवस्था (Fluid Condition) में छोड़ देना चाहते थे। इसकी वजह से अब धारा 370 में (Part XXI) अस्थाई, परिवर्ती प्रावधान है।’
अन्य रजवाड़े पड़ोसी राज्यों के साथ मिला दिए गए और उनके क्षेत्रों को वही संवैधानिक दर्जा मिला, जो संघ के अन्य राज्यों को मिला था। उनके नागरिकों को वहीं अधिकार मिले, जो अन्य राज्यों के नागरिकों को मिले थे। लेकिन दूसरे रजवाड़ों को मिलाने में जो संकल्प और दूर-दृष्टि दिखाई पड़ी थी, वह जम्मू-कश्मीर के मामले में नदारद थी।
गद्दी पाने के तुरंत बाद शेख अब्दुल्ला अपनी महत्वाकांक्षा को सींचने लगे। वे राज्य के लिए और अधिकार की मांग करने लगे। लंबी बहस के बाद एक सहमति बनी, जिसे दिल्ली समझौता (जुलाई 1952) कहा जाता है। वंशानुगत शासनाधिकार खत्म कर दिया गया। अवशिष्ट और समवर्ती शक्तियां राज्य के अधीन रहीं, विशेष नागरिकता अधिाकार राज्य का विषय बना रहा। राष्ट्रीय झंडे के साथ राज्य के लिए एक अलग झंडे के फहरने की एक बेहद ‘पृथक व्यवस्था’ थी।
डॉ. मुखर्जी की चेतावनीडॉ. मुखर्जी ने शेख अब्दुल्ला के त्रि-राष्ट्रीय सिध्दांत को विकसित करने की मंशा को भांप लिया। बाद में चलकर इस सिध्दांत को ‘थर्ड ऑप्शन’ के रूप में पुन: बल मिला। मृत्यु के लगभग चार महीने पहले उन्होंने एक पत्र में अब्दुल्ला को लिखा, ‘आप त्रि-राष्ट्रीय सिध्दांत को विकसित कर रहे हैं और तीसरा कश्मीर राष्ट्र है। यह एक खतरनाक लक्षण है, जो आपके राज्य और संपूर्ण भारत के लिए भी बुरा है।’
21 मई, 1952 को डॉ. मुखर्जी ने संसद में अपनी विशिष्ट निष्पक्षता के साथ नेहरू से एक उपयुक्त प्रश्न पूछा, ‘क्या कश्मीरी पहले भारतीय हैं और बाद में कश्मीरी या पहले कश्मीरी हैं और बाद में भारतीय?’ इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं था।
7 अगस्त 1952 को डॉ. मुखर्जी ने प्रधानमंत्री से पुन: प्रश्न पूछा, ‘क्या शेख अब्दुल्ला भारतीय गणराज्य के अंग नहीं हैं। क्या वे इस संविधान को लगभग 500 रजवाड़ों समेत शेष भारत की तरह स्वीकार नहीं करते। यदि यह सभी के लिए अच्छा है, तो कश्मीर में उनके लिए क्यों नहीं अच्छा है?’ विस्तार करते हुए उन्होंने कहा, ‘कश्मीर के संबंधा में जैसा आप सोच रहे हैं, यदि वहीं मांग अन्य राज्य करने लगे तो क्या आप वह मांग पूरी करने के लिए सहमत होंगे? आप वैसा नहीं करेंगे क्योंकि उससे भारत नष्ट हो जाएगा।’
शेख अब्दुल्ला की अलग झंडे (राज्य के लिए) की जिद पर मुखर्जी ने कहा, ‘आप निष्ठा को नहीं बांट सकते। यह कोई आधा-आधा वाला मामला नहीं है। यह कोई बराबरी का प्रश्न नहीं है।’
डॉ. मुखर्जी ने संसद को सावधान किया, ‘यदि आप हवा के साथ खेलना चाहते हैं और कहते हैं कि हम लाचार हैं, तो शेख अब्दुल्ला जो चाहते हैं उसे करने दीजिए और समझिए कश्मीर हाथ से गया। मैं काफी सोच विचार कर कह रहा हूं कि कश्मीर को हम खो देंगे।’ दुर्भाग्यवश, संसद ने ध्‍यान नहीं दिया और तत्कालीन प्रधानमंत्री को वही करने दिया, जो भविष्य की समस्याओं का बीज बना।
संवैधानिक प्रावधानों का विस्तारबक्सी गुलाम मुहम्मद को जम्मू व कश्मीर सरकार के मुखिया बनने के बाद ही राज्य के लिए भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों का विस्तार शुरू हुआ। भारत के राष्ट्रपति द्वारा संविधान आदेश 1954 (Application to Jammu and Kashmir) की घोषणा की गई। आदेश समय-समय पर संशोधिात किया गया। भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों का विस्तार राज्य को किया गया। 1954 के राष्ट्रपति आदेश से वित्तीय एकीकरण हुआ और सीमा शुल्क, सेंट्रल एक्साइज, डाक और टेलीग्राफ तथा नागरिक उड्डयन के क्षेत्राधिाकार का विस्तार हुआ। 1958 में नियंत्रक और महालेखा परीक्षक के क्षेत्राधिाकार का विस्तार किया गया। 1960 में जम्मू-कश्मीर के निर्णयों पर सुप्रीम कोर्ट को ‘Special leave to appeal’ का अधिकार मिला। भारत के चुनाव आयोग की निगरानी को स्वीकार किया गया, हालांकि राज्य में चुनाव राज्य कानून के दायरे में होते रहे। 1964 में भारतीय संविधान की धारा 356 और 357 का विस्तार किया गया और 1965 में कुछ केंद्रीय श्रम कानूनों का भी विस्तार किया गया।
सन् 1968 में संघ सूची के उन प्रावधानों का विस्तार हुआ, जो हाई कोर्ट द्वारा चुनाव याचिकाओं पर दिए गए निर्णय के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की अनुमति देता है।
संविधान प्रावधानों के विस्तार व उनके अमल में आने के कारण सदर-ए-रियासत और जम्मू-कश्मीर के प्रधानमंत्री का पदनाम, उनकी नियुक्ति की प्रक्रिया, उनके कार्य तथा उनका दर्जा अप्रासंगिक हो गया। ऐसा महसूस किया जाने लगा कि सदर-ए-रियासत और प्रधानमंत्री का पदनाम और नियुक्ति की प्रक्रिया में बदलाव होना चाहिए। इस संबंध में जरूरी बदलाव 1966 में हुए, जब स्वयं राज्य विधान सभा ने जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधन किया। यह उस दौरान हुआ, जब राज्य सरकार के मुखिया जी. एम. सादिक थे।
औचित्यइस रूपांतरण में क्या गलत है? वे किस तरह आम कश्मीरी के हितों, उनकी पहचान, संस्कृति, उनकी भाषा और उनकी अपेक्षाओं को नुकसान पहुंचाते हैं। इससे मात्र संवैधानिक, प्रशासनिक व वित्तीय प्रबंध की स्थापना हुई। यह रूपांतरण राज्य सरकार की पूर्ण सहमति से हुआ। शेख अब्दुल्ला के परिदृश्य से अनुपस्थिति के दौरान हुए परिवर्तनों में जो लोग खामियां निकालते हैं, वे यह भूल जाते हैं कि यह इनमें कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि केंद्र तथा राज्य सरकार प्रासंगिक हैं।
जो भी कुछ हो, अभी भी विषय क्षेत्र ऐसे हैं, जो राज्य के क्षेत्राधिकार में आते हैं। इसमें समवर्ती सूची का एक बड़ा भाग और अवशिष्ट शक्तियां शामिल हैं। भारत का नागरिक जम्मू-कश्मीर का वास्तविक नागरिक नहीं है।
जम्मू-कश्मीर में कई वर्षों तक रहने के बावजूद उन्हें यह अधिकार नहीं है कि वे वहां के स्थाई निवासी बन सकें और वहां की प्रापर्टी खरीद सकें। उन्हें राज्य विधान सभा, स्थानीय या पंचायत के चुनावों में मतदान करने का अधिकार नहीं है। सबसे बुरी बात यह है कि यदि जम्मू-कश्मीर की कोई महिला किसी दूसरे राज्य के पुरुष से शादी रचाती है, तो प्रापर्टी समेत उसके सभी अधिकार खत्म हो जाएंगे। जम्मू-कश्मीर में वित्तीय आपात की घोषणा नहीं हो सकती, क्योंकि भारतीय संविधान की धारा 360 जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती। धारा 365 भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती। जैसा कि हम जानते हैं कि धारा 365 के तहत भारत का राष्ट्रपति संघ की कार्यकारी शक्तियों के संबंध में राज्य को निर्देश देता है।
कश्मीर समझौताबांग्लादेश युध्द के बाद बदली हुई परिस्थितियों में शेख अब्दुल्ला के प्रतिनिधिायों और श्रीमती इंदिरा गांधी के बीच वार्ताएं हुईं। वार्ताओं के परिणामस्वरूप फरवरी 1975 में कश्मीर समझौते पर दस्तखत हुए।
वास्तव में, कश्मीर समझौते से संघ और राज्य के बीच संवैधानिक संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। इसका मुख्य मकसद शेख अब्दुल्ला को हुकुमत में वापस लाना और यह दर्शाना था कि स्वायत्तता संबंधी कुछ पहलुओं की पुनर्समीक्षा होगी।
न तो शेख अब्दुल्ला की सरकार और न ही डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने किसी ऐसे प्रस्ताव का निर्माण किया या ऐसे ही प्रस्ताव को भारत सरकार के पास भेजा, जिसमें अगस्त 1953 से लेकर फरवरी 1975 तक बीच विस्तारित संविधान प्रावधानों व कानूनों के हटाने की बात कही गई हो।
राज्य सभा में मेरे अतारांकित प्रश्न संख्या 1871 के जबाव में भारत सरकार दिसंबर 14, 1995 में कहती है, ‘राज्य सरकार ने किसी भी ऐसे संवैधानिक या कानूनों को वापस करने का प्रस्ताव नहीं किया गया, जो 1975 से पहले राज्य को विस्तारित हुए।’
स्वायत्तता का हौवाकश्मीर समझौते में स्वायत्तता संबंधी प्रावधानों के बावजूद किसी परिवर्तन का प्रयास नहीं हुआ, क्योंकि जो संवैधानिक प्रावधान अगस्त 1953 से फरवरी 1975 के बीच राज्य को विस्तारित हुए, वे व्यावहारिक जरूरतों की उपज थे और राज्य के आम लोगों के हितों के अनुरूप भी।
उदाहरण के लिए चुनाव आयोग, सुप्रीम कोर्ट या नियंत्रक व लेखा परीक्षक के क्षेत्राधिकार के विस्तार का क्यों विरोध हो, जब इनके विस्तार से बेहतर न्याय और बेहतर लेखा परीक्षण उपलब्ध होता हो। श्रम कल्याण कानूनों में क्या खामियां हो सकती हैं? सच्चाई यह है कि कश्मीर की स्वायत्तता के खतरे का जो हौवा शेख अब्दुल्ला ने खड़ा किया, वह कुछ और नहीं, बल्कि कश्मीरी जनता की संविधान संबंधी प्रावधानों के प्रति अनभिज्ञता को शोषण करने का एक विलाप था। ताकि वह अपने आपको कश्मीरी हितों का चैंपियन साबित कर सकें।
ठोस सवालजो लोग 1952-53 के पहले की स्थिति बहाल करना चाहते हैं या जम्मू-कश्मीर के लिए अधिकतम स्वायत्तता की मांग करते हैं, वे मूल प्रश्नों पर ध्‍यान नहीं देते। वे आज भी अस्पष्ट हैं और अपनी मांग की व्यावहारिकता पर जरा भी ख्याल नहीं करते। उदाहरण के तौर पर वे इस तथ्य को दबाते हैं कि संघ के साथ पूर्ण वित्तीय एकीकरण के बिना जम्मू-कश्मीर के विकास के लिए कोई स्रोत उपलब्धा नहीं होगा। यह संघ ही है, जो राज्य की पंचवर्षीय योजना का सारा धन मुहैया कराता है और गैर-योजना खर्च के एक बड़े हिस्से को भी वहन करता है। इस उदाहरण से बात पूरी तरह से स्पष्ट हो जाएगी। संघ की तरफ से बिहार को प्रति व्यक्ति के हिसाब से 876 रुपये की मदद मिलती है, जबकि कश्मीर को मिलते हैं, 9,753 रुपये। यह बिहार को मिलने वाली धनराशि का 11 गुना है, जबकि बिहार देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। इतना ही नहीं, जम्मू-कश्मीर को मिलने वाली धनराशि में 90 प्रतिशत सहायता के रूप में होती है और शेष 10 प्रतिशत ऋण के रूप में। जबकि दूसरे राज्यों में 70 प्रतिशत ऋण होता है और 30 प्रतिशत सहायता। यह इस बात का सबूत है कि संघ से वित्तीय एकीकरण के कारण जम्मू-कश्मीर को काफी धन मिलता है। क्या होगा, जब यह लिंक टूट जाएगा? कौन इसकी भरपाई करेगा?
इसी तरह धारा 356 के विस्तार का उदाहरण लीजिए। भारतीय संविधान की धारा 356 भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार देती है कि वह किसी राज्य में संघ का शासन लागू कर सके। प्राय: यह कहा जाता है कि इसके विस्तार से राज्यों की स्वायत्तता में अतिक्रमण होता है। यदि राज्य में संवैधानिक व्यवस्था असफल हो जाती है, या राज्य रक्षा, विदेश, संचार संबंधी किसी निर्देश को मानने से इनकार कर देता है, तो धारा 356 के अधीन राष्ट्रपति की शक्तियों की अनुपस्थिति में क्या होगा? कल्पना कीजिए, यदि राज्यपाल के संगत शक्तियां (corresponding power) हैं, तो इसका अर्थ यह होगा कि राष्ट्रपति अपने ही द्वारा नियुक्त राज्यपाल के निर्णयों को मानने पर विवश होगा।
फिर भी मान लें कि यदि राज्यपाल को सदर-ए-रियासत बना दिया जाय, जिसका चुनाव राज्य विधान सभा करेगी, तब क्या सदर-ए-रियासत को अंतिम निर्णायक बनाना केंद्र को राज्य के अधीन करना न होगा? और यदि राष्ट्रपति सदर-ए-रियासत की मान्यता खत्म कर देता है, परंतु राज्य विधान सभा उसे फिर से चुनती है, तो क्या इससे संवैधानिक संकट नहीं खड़ा होगा?
यदि संघ से धन उसी पैमाने पर कश्मीर को मिलता है, जैसा कि इस समय मिल रहा है और रक्षा, विदेश और संचार के अलावा अन्य विषयों पर राज्य का फैसला ही अंतिम है, तो पाकिस्तान की तर्ज पर यहां भी इस्लामी सिविल और क्रीमिनल कानूनों का निर्माण संभव है और शरियत कोर्ट की स्थापना भी हो सकती है, जो इसे धार्मिक राज्य में तब्दील कर देगी। क्या यह हमारे संविधान की मूल भावना के विपरीत नहीं है।
विस्तृत शक्तियांजम्मू कश्मीर की समस्या शक्तियों का अभाव नहीं, बल्कि शक्तियों की अधिकता है। उदाहरण के तौर पर 1977-78 में शेख अब्दुल्ला ने राज्य में एक तरह से तानाशाही की स्थापना की। उन्होंने राजा की तरह शासन चलाया। उन्होंने अल-फतह, प्लेबिसाइट फ्रंट और दूसरे विध्‍वंसात्मक संगठनों के कट्टर समर्थकों की नियुक्ति पुलिस जैसे संवेदनशील संगठनों में किया। निश्चित तौर पर यह कार्य राज्य की सुरक्षा और स्थाईत्व के लिए गंभीर खतरा था। फिर भी वे बेरोक-टोक (राज्य के राज्यपाल और संघ की सरकार द्वारा) आगे बढ़ते रहे।
पुनर्वास कानून, जो शेख अब्दुल्ला के समय 1982 में बना और डॉ. फारूख अब्दुल्ला के शासन काल में औपचारिक रूप से लागू हुआ, इस बात का प्रमाण है कि राज्य सरकार के पास विस्तृत शक्तियां थीं।
दरअसल, स्वायत्तता में ह्रास नहीं, बल्कि ईमानदारी और उत्साह में कमी थी, जिससे कश्मीर की तमाम समस्याओं को जन्म दिया। सच तो यह है कि राज्य नेतृत्व के पास पर्याप्त शक्तियां हैं, लेकिन उन्होंने इसका उपयोग राज्य की सेवा के लिए नहीं, बल्कि खुद की सेवा में लगाया।
स्वायत्तता की राग अलापने वाले नेताओं से कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न पूछने की जरूरत है? क्या उन्हें और अधिक स्वायत्तता की जरूरत है ताकि वे ऐसे कानूनों का निर्माण कर सकें, जैसा कि ऊपर में उल्लिखित है? किन शक्तियों के अभाव में राज्य के कल्याणकारी व विकास कार्य प्रभावित होते हैं? कौन सा कानून, कार्यकारी आदेश या न्यायपालिका का फैसला कश्मीर की पहचान का प्रभावित किया या वहां की सांस्कृतिक धरातल को बदला? संघ द्वारा दिए जाने वाले धन की अनुपस्थिति में क्या होगा? यदि इस धन का प्रवाह निरंतर बना रहा तो यह कैसे सुनिश्चित होगा कि यह धन धर्मांधों के हाथों में नहीं जाएगा और उनके हाथ नहीं मजबूत करेगा? और राज्य के कट्टरपंथियों की समस्या से कैसे निपटेंगे?
लोगों को गुमराह करने की कोशिशयदि हम गौरपूर्वक विचार करें तो पाएंगे कि ज्यादा स्वायत्तता या 1952-53 से पूर्व स्थिति की बहाली की मांग लोगों को गुमराह करने वाली है और उनके मस्तिष्क में अव्यावहारिक तथा असमर्थनीय धारणा को जन्म देने वाली है। वे जानबूझ या अनजानवश उन शक्तियों के हाथ मजबूत कर रहे हैं, जो 1948 के बाद छिपे या प्रत्यक्ष रूप से अलगाववाद को प्रोत्साहन दे रहे हैं। लेकिन आज की ‘ज्यादा स्वायत्तता’ का मतलब है, कल की स्वतंत्रता।
दरअसल, इस तरह की मांग के गंभीर व भयानक परिणाम होंगे और देश अंतत: कई टुकड़ों में बंट जाएगा।
(लेखक जम्‍मू-कश्‍मीर के राज्‍यपाल रहे हैं)


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